2011 की फोर्स के खलनायक विद्युत जमवाल को अपनी मसल्स और मार्शल आर्ट्स के कारण बहुत शोहरत मिली थी। वह मार्शल आर्ट्स के माहिर है। उन्होने दिलीप घोष की आज रीलीज़ फिल्म कमांडो के तमाम एक्शन (ऊंचाई से दरिया में कूदने का दृश्य छोड़ कर) खुद किए हैं। कमांडो के प्रोमोस में विद्युत जमवाल की मार्शल आर्ट्स स्किल देख कर ही दर्शक कमांडो देखने आते हैं। इसमे कोई शक नहीं कि विद्युत जमवाल निराश नहीं करते । उनके एक्शन दर्शकों को तालियाँ बजाने को मजबूर कर देते हैं। लेकिन फिल्म मात खाती है कहानी और स्क्रिप्ट की कमजोरी के कारण। सच कहा जाये तो फिल्म में कहानी नदारद है। स्क्रिप्ट में कसाव और नयापन नहीं हैं। फिल्म एक एक्शन थ्रिलर है, लेकिन दर्शकों के सीटों की एड्ज पर रखने वाला थ्रिल नहीं हैं। पूरी फिल्म हीरो और हीरोइन की पीछे भागते खलनायक और उसके साथियों पर टिकी रहती है। यह रोमांचित नहीं करता तो ऊबाऊ भी नहीं है। दिलीप घोष ने अपनी निर्देशकीय कल्पनाशीलता का कोई परिचय नहीं दिया। अगर विद्युत मार्शल आर्ट्स के उस्ताद न होते तो दर्शकों को सिनेमाघर छोड़ना पड़ता। ऐसी फिल्मों मे धारदार और जोरदार संवादों का महत्व होता है। लेकिन कमांडो के संवाद फिल्म को कोई सपोर्ट नहीं देते। विद्युत जमवाल अपने एक्शन से प्रभावी करते हैं, अभिनय से नहीं। पूजा गुप्ता को अभिनय तो नहीं आता, वह खूबसूरत भी नहीं हैं। खलनायक के रोल में जयदीप अहलावत ए के 47 की तरह खतरनाक नहीं, पुरानी हिम्मतवाला के अमजद खान जैसे लगते हैं। उनके चुट्कुले हँसाते कम, कोफ्त ज़्यादा पैदा करते हैं। इस एक्शन थ्रिलर फिल्म के बहाव में अनावश्यक गीत बाधा पैदा करते हैं। इस फिल्म को विद्युत जमवाल के एक्शन सींस के कारण देखा जा सकता है और लोग देख भी रहे हैं।
Friday, April 12, 2013
बॉलीवुड के कमांडो विद्युत जमवाल
2011 की फोर्स के खलनायक विद्युत जमवाल को अपनी मसल्स और मार्शल आर्ट्स के कारण बहुत शोहरत मिली थी। वह मार्शल आर्ट्स के माहिर है। उन्होने दिलीप घोष की आज रीलीज़ फिल्म कमांडो के तमाम एक्शन (ऊंचाई से दरिया में कूदने का दृश्य छोड़ कर) खुद किए हैं। कमांडो के प्रोमोस में विद्युत जमवाल की मार्शल आर्ट्स स्किल देख कर ही दर्शक कमांडो देखने आते हैं। इसमे कोई शक नहीं कि विद्युत जमवाल निराश नहीं करते । उनके एक्शन दर्शकों को तालियाँ बजाने को मजबूर कर देते हैं। लेकिन फिल्म मात खाती है कहानी और स्क्रिप्ट की कमजोरी के कारण। सच कहा जाये तो फिल्म में कहानी नदारद है। स्क्रिप्ट में कसाव और नयापन नहीं हैं। फिल्म एक एक्शन थ्रिलर है, लेकिन दर्शकों के सीटों की एड्ज पर रखने वाला थ्रिल नहीं हैं। पूरी फिल्म हीरो और हीरोइन की पीछे भागते खलनायक और उसके साथियों पर टिकी रहती है। यह रोमांचित नहीं करता तो ऊबाऊ भी नहीं है। दिलीप घोष ने अपनी निर्देशकीय कल्पनाशीलता का कोई परिचय नहीं दिया। अगर विद्युत मार्शल आर्ट्स के उस्ताद न होते तो दर्शकों को सिनेमाघर छोड़ना पड़ता। ऐसी फिल्मों मे धारदार और जोरदार संवादों का महत्व होता है। लेकिन कमांडो के संवाद फिल्म को कोई सपोर्ट नहीं देते। विद्युत जमवाल अपने एक्शन से प्रभावी करते हैं, अभिनय से नहीं। पूजा गुप्ता को अभिनय तो नहीं आता, वह खूबसूरत भी नहीं हैं। खलनायक के रोल में जयदीप अहलावत ए के 47 की तरह खतरनाक नहीं, पुरानी हिम्मतवाला के अमजद खान जैसे लगते हैं। उनके चुट्कुले हँसाते कम, कोफ्त ज़्यादा पैदा करते हैं। इस एक्शन थ्रिलर फिल्म के बहाव में अनावश्यक गीत बाधा पैदा करते हैं। इस फिल्म को विद्युत जमवाल के एक्शन सींस के कारण देखा जा सकता है और लोग देख भी रहे हैं।
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